1. प्रजा के पाप का फल राजा, राजा के पाप का फल राजपुरोहित, शिष्य के पाप का फल गुरु और स्त्री के पाप का फल पति को भोगना पड़ता है ।
2. प्रतिदिन हमें कुछ न कुछ नया ग्रहण करना चाहिए, फिर चाहे वह एक श्लोक, उसका एक अंश अथवा एक शब्द मात्र ही क्यों न हो । एक – एक शब्द ही एक दिन विशाल समुंद्र का रूप धारण कर लेता है ।
3. दूसरों का सहारा लेने पर व्यक्ति का स्वयं का अस्तित्व गौण हो जाता है, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर चन्द्रमा का प्रकाश चमक खो बैठता है । अतः महान वही है जो अपने बल पर खड़ा है ।
4. अतिथि का सत्कार न करने वाला, थके – हारे को आश्रय न देने वाला और दूसरे का हिस्सा हड़प करने वाला, ये सब लोग महापापी होते है ।
5. सीधेपन का लोग लाभ उठाते ही है । मनुष्य को इतना ज्यादा भी सरल – हदयी नहीं होना चाहिए कि हर कोई उसे ठग ले । जंगल में सीधे खड़े वृक्षों को ही काटा जाता है । टेड़े मेढे वृक्ष मजे से सीना ताने खड़े रहते है ।
6. बुरे मित्र का न होना ही अच्छा है, बुरे राजा से बिना राजा होना अच्छा, सदाचरण से रहित शिष्य से शिष्य का न होना अच्छा और आचरणहीन स्त्री से बिना स्त्री के रहना ही उचित कहा गया है ।
7. धन, दोस्त , नारी, सम्पति, राज्य । यह सब तो बार – बार मिल सकते है परन्तु यह मानव शरीर यदि एक बार चला जाए तो फिर वापिस नहीं मिल सकता ।
8. जिस मानव के गुणों की प्रशंसा दूसरे लोग उसकी पीठ के पीछे करें, भले ही वह गुणहीन क्यों न हो परन्तु उसे ही गुणवान माना जाएगा किन्तु यदि इन्द्र भी अपने मुंह से अपनी प्रशंसा करे तो उसे छोटापन माना जाएगा ।
9. पत्नी नाना प्रकार के दान, व्रत – उपवास, तीर्थ सेवन करके भी उतनी पवित्र नहीं होती जितनी पति सेवा करने से होती है ।
10. जिस व्यक्ति की पत्नी सदाचारिणी हो, धन भी भरपूर हो, पुत्र गुणवान हों, प्रपौत्र भी हो तो उसके लिए यह धरती ही स्वर्ग है । क्योंकि स्वर्ग में भी इससे बढ़कर तो कुछ और हो ही नहीं सकता ।